सतगुरु सिंगाजी महाराज की संध्या आरती
संजा भई गोपाल की न धेनु चरे घर आए
राधा धुवे धोवणी न मोहन धुवे गाय ,
सांझ पडे दिन अस्त भए न चकआ चुने न चुन ,
चल चाकुआ वहा जाईये जहा अस्त भए न सूर्य ,
चाकुआ बिचडे रैन से आन मिले परभात ,
जो नर बिछुडे राम से तो दिवस मिले नहीं रात ,
गुरुजी का सुमिरण कीजिये न गुरु का धरिए ध्यान ,
गुरु की सेवा कीजिये तो मिटे सकल अज्ञान ,
फल टूटे जल मे गिरे न खोजे मिटे न प्यास ,
गुरु तजे औरन को भजे अंत ही नरक निवास ,
गुरुजी आए देश मे न भली सुणाई बात ,
जब लग दर्शन ना भये तब लग निकसे प्राण ,
राम नाम निज मंत्र है न रतियों प्रीत लगाय ,
मंगल पर धीरज धरे तो कोटी विघन टल जाय ,
सिंगा जग म जीवता न सेवक सुमरे पास ,
जन कारण तन धारियो तो ब्रम्ह ज्योति परकाश ,
आरती साहेब थारी किस विध कीजै
तन मन अर्पण शीश धर लीजै
शीश जो होय तो फूल चढ़ाऊं
चरण जो होय चरणामृत लीजै
मुख जो होय मिष्ठान खिलाऊं
झूठा हो देव सब पत्थर पूजे
शरीर जो होय तो उबटन कीजै
प्रेम संतोष सदा हो रस पीजै
पाती हूं तोडू मही हो तुम बैठे
नाहक हतन अपणा हो सिर लीजै
आरती करहूँ अरज तुम मानो
तीनों दरवाजा मिल अमीरस पिजै
रूप न रेख देही धारा भी नाही
मुक्त निशाण सिंगाजी अनहद गाजे
जय जय आरती अलख निरंजन
तन मन अर्पण करूं दुख भंजन
कर्म कपास करहूँ मन बाती
पाँच हु पतंग जले हो दिन राती
पोखण प्रेम चुभे हो पल पल म
दीपक अखण्ड निरंतर जलता
सहे जाम झालर होय झनकारा
देव बिना देहुल अखण्डित सारा
अनहद बाजा बजे हो तुरा
सेवा सेवक करत हजूरा
आरती तेरी न तुम मुझे भावे
हरक हरक हरिदास गुण गावे
ऐसी आरती करहूं विचारी मदन मोहन हरी न कियो विस्तारी
सब सिरगुण का थाल संजोया तत्वा तिरगुण तिलक लगाया
लख चौरासी का फेरा लाया स्थावर जंगम बीच सोहंग पुराया
गुरु ब्रह्म ज्ञान का दीपक लगाया अलख पुरुष हरि को मर्म पाया
कहे जण दल्लू कोई सत करी ध्यावे यवणी संकट भवर नहीं आवे
चलो संतो पांवा हो दीदार , सिंगाजी घर हरी को बधावणों
बाबा मनुष जनम दुर्लभ है रे , एसो आवे न दुजी बार
यो पल नहीं आव पावणों , तुम मानो वचन नर नार
जिन्न गुरु गोविंद सेविया , आसा भवजल उतरे पार
धन करणी सतगुरु की , जिन्न जीत लियो संसार
बाबा दल्लू हो पतित हरी की विनती , गुरु मोहे राखो चरण आधार
