देव उठनी एकादशी की व्रत कथा
देव उठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा का विधान है। ऐसी मान्यता है कि देव उठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की आराधना करने से घर में सब कुछ मंगलमय और शुभ होता है। वहीं, इस दिन श्री हरि नारायण की पूजा के दौरान व्रत कथा का अनुसरण करना भी फलदायी होता है। तभी व्रत और पूजा का पूर्ण फल मिलता है।
बहुत समय पहले की बात है, एक नगर में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। उनके पास एक बहुचर्चित पुत्र था, जो बहुत ही ज्ञानी और धार्मिक था। उसका नाम रामचंद्र था। वह प्रतिदिन भगवान विष्णु की पूजा करता और व्रत-उपवासी रहता था। एक दिन उसने सुना कि देव उठनी एकादशी के दिन विशेष पूजा करने से जीवन के सभी दुख समाप्त हो जाते हैं और पुण्य की प्राप्ति होती है।
रामचंद्र ने सोचा कि इस दिन का व्रत और पूजा करना उसके जीवन के लिए शुभ होगा। रामचंद्र ने निश्चय किया कि वह इस दिन भगवान विष्णु का उपासना करके जीवन के सारे पापों से मुक्त होगा। वह पूरी श्रद्धा और आस्था से एकादशी के दिन व्रत करने बैठा। उस दिन वह पूरी रात जागकर प्रभु के नाम का जाप करने लगा और दिनभर उपवास रखा।
व्रत के दौरान, वह किसी भी प्रकार के सुख या भोग से बचने की कोशिश करता था। रात्रि में, भगवान विष्णु ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और रामचंद्र से कहा कि रामचंद्र ने उनके प्रति निष्ठा और भक्ति से यह व्रत किया है, इसलिए रामचंद्र के सभी पाप समाप्त हो जाएंगे और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। भगवान विष्णु के आशीर्वाद से रामचंद्र का जीवन सुखमय हो गया।
अन्य कथा के अनुसार, एक बार माता लक्ष्मी की बहनों ने भगवान विष्णु को पाने के लिए घोर तप किया। भगवान विष्णु जानते थे कि माता लक्ष्मी की बहनों की इच्छा गलत है लेकिन वह तप का वरदान देने के लिए विवश थे। जब भगवान विष्णु ने माता लक्ष्मी की बहनों को दर्शन दीये तो उन्होंने भगवान विष्णु से उनकी स्मृति चले जाने का वरदान मांग लिया।
वरदान अनुसार भगवान विष्णु को कुछ भी याद न रहा और वह पाताल में लक्ष्मी अमता की बहनों के साथ निवास करने लगे। चार महीने पाताल में निवास के बाद भगवान शिव भगवान विष्णु को लेने के लिए पहुंचे। चूंकि भगवान विष्णु को कुछ भी याद नहीं था इसलिए उन्होंने भगवान शिव के साथ चलने से मना कर दिया जिसके बाद शिव-हरि का भयंकर युद्ध हुआ।
युद्ध के दौरान जब भगवान शिव ने भगवान विष्णु के हृदय पर त्रिशूल चलाया तब जाकर भगवान विष्णु को सब पुनः याद आया और वह अपने धाम वैकुण्ठ लौट आए। जिस दिन भगवान विष्णु अपने धाम शिव जी के साथ लौटे थे उस दिन कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी। भगवान विष्णु के जागने के कारण इसका नाम देव उठनी पड़ा।
देवोत्थान एकादशी का महत्त्व:
धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! मैंने कार्तिक कृष्ण एकादशी अर्थात रमा एकादशी का सविस्तार वर्णन सुना। अब आप कृपा करके मुझे कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के विषय में भी बतलाइये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसकी विधि क्या है? इसका व्रत करने से किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया यह सब विधानपूर्वक कहिए।
भगवान श्रीकृष्ण बोले: कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष मे तुलसी विवाह के दिन आने वाली इस एकादशी को विष्णु प्रबोधिनी एकादशी, देव-प्रबोधिनी एकादशी, देवोत्थान, देव उथव एकादशी, देवउठनी एकादशी, कार्तिक शुक्ल एकादशी तथा प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है, इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
अन्य कथा के अनुसार, एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला: महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय हाँ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा: महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा, मुझे अन्न दे दो।
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा: आओ भगवान! भोजन तैयार है।
उसके बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुँचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला: मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बात सुनकर वह बोला: महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा: हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।
लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
